IRSC TODAY;
विदेशी डिजिटल कंपनियों से नेताओं ने वोटरों को कब्जाने का मंत्र हासिल कर लिया तो फिर आने वाले समय में लोकतांत्रिक व्यवस्था बेमानी हो जाएगी
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कोरोना के बाद अब चीन ने डिजिटल जासूसी से अपना कहर बरपाना शुरू कर दिया है. चीनी कंपनी द्वारा सरपंच से लेकर प्रधानमंत्री और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस से लेकर बड़े अपराधियों की डिजिटल कुंडली बनाए जाने के बड़े खुलासे से पूरे देश में हडकंप है। इस तरह की डाटा चोरी के पांच पहलू हैं।
देश की सुरक्षा में सेंध, लोकतांत्रिक और चुनावी व्यवस्था में हस्तक्षेप, प्राइवेसी में दखलंदाजी, वैश्विक संचार तंत्र पर कब्जा, और बाजार में माल बेचना। ऑपरेशन प्रिज्म के माध्यम से 14 साल पहले अमेरिका ने भारत की सुरक्षा में सेंध लगाई थी। उस मामले का खुलासा करने वाले स्नोडेन को अमेरिका से भागना पड़ा था।
डाटा चोरी करने वाली कंपनियां विश्व में सिरमौर बन गई हैं। उसके बाद कैंब्रिज एनालिटिका-फेसबुक के माध्यम से भारत की चुनावी व्यवस्था में हस्तक्षेप की कोशिश हुई, जिसकी सीबीआई जांच के परिणामों का कोई अता-पता नहीं है। पेगासस-वॉट्सअप मामले में प्राइवेसी में दखलंदाजी के आपराधिक साक्ष्य मिलने के बावजूद सरकार और विपक्ष दोनों मौन ही बने रहे।
ई कॉमर्स और डिजिटल पेमेंट का नया बाजार तो संचार तंत्र को कब्ज़ा करके ही बना है। सस्ता डाटा, इंटरनेट और स्मार्टफोन के विस्तार से भारत डाटा का वैश्विक महासागर बन गया है. लोगों का नाम, फोटो, ईमेल, मैसेज, वीडियो, मोबाइल नंबर, और लोकेशन का डाटा डिजिटल मंडी में कौड़ियों के भाव नीलाम हो रहा है।
डाटा माइनिंग और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के माध्यम से विदेशी कंपनियों ने भारत के बाजार और सामरिक तंत्र में पूरा कब्ज़ा कर लिया है। चीनी कंपनी ने रटंतु जवाब में कहा है कि सार्वजनिक डाटा इकट्ठा करने के व्यापार में कुछ भी गैरकानूनी नहीं है।
सार्वजनिक डाटा के इस्तेमाल के खिलाफ स्पष्ट कानून भले ही ना हो, लेकिन सरकारी, सामरिक और जनता के निजी संवेदनशील डाटा के साथ कोई भी छेड़छाड़ भारतीय कानून के अनुसार अपराध है। पब्लिक रिकॉर्ड्स एक्ट और ऑफिशियल सीक्रेटस एक्ट जैसे कानून की वजह से सरकारी कार्यों में विदेशी ईमेल और नेटवर्क के इस्तेमाल पर कानूनी प्रतिबंध है।
सोशल मीडिया कंपनियां भारत के ग्राहकों का डाटा विदेश में रखती हैं, इसलिए सोशल मीडिया के सरकारी इस्तेमाल पर भी अनेक प्रतिबंध हैं। सरकारी मोबाइल और कंप्यूटर नेटवर्क से इंटरनेट और सोशल मीडिया को कनेक्ट करने पर भी अनेक प्रकार के प्रतिबंध हैं।
लेकिन इन नियमों का पालन नहीं होने से सरकारी और सामरिक सूचनाएं चीन और अन्य विदेशी शक्तियों तक बेरोकटोक पहुंच रही हैं, जो राष्ट्रीय चिंता का विषय है। चीनी कंपनी की तर्ज़ पर डाटा प्रोफाइलिंग का रिवाज़ यदि बढ़ा तो नेता, अफसर और जजों को ब्लैकमेल करने का नया सिलसिला, राष्ट्रीय संकट का सबब बन सकता है।
चीनी एप्स पर प्रतिबन्ध को भारत में अभी तक पूरी सफलता से लागू नहीं किया जा सका है। भारत में इस्तेमाल हो रहे तीन चौथाई फोन चीनी हैं, जो डिजिटल जासूसी का सबसे बड़ा माध्यम हैं। चीनी कंपनी ने पूरे विश्व में लगभग 25 लाख लोगों की डाटा प्रोफाइलिंग की है, जिसमें भारत के 10 हजार लोग और संस्थाएं शामिल हैं।
लेकिन मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया कंपनियों ने भारत के 130 करोड़ लोगों की डाटा प्रोफाइलिंग करके पूरे सिस्टम को हाईजैक कर लिया है। चीनी कंपनी ने सूचनाओं को हासिल करने के लिए फेसबुक, यूट्यूब, व्हाट्सएप, टिकटॉक, गूगल, लिंक्डइन जैसे प्लेटफार्म का इस्तेमाल किया। कैम्ब्रिज एनालिटिका की तर्ज़ पर फेसबुक ने चीनी कंपनी को दी गई इजाजत को रद्द कर दिया है।
सवाल यह है कि फेसबुक जैसी कंपनियां ग्राहकों की स्पष्ट सहमति के बगैर दूसरे एप्स को डाटा माइनिंग की गैरकानूनी इजाजत क्यों देती हैं? सवाल यह है कि जब डाटा और ओटीटी दोनों के बारे में कानून नहीं बनाए जा रहे हैं तो फिर डिजिटल जासूसी को भविष्य में कैसे रोका जा सकेगा? लद्दाख में हमारी सेना ने चीन को पीछे धकेल दिया।
लेकिन चीनी सेना द्वारा समर्थित हाइब्रिड वार फेयर यानी डिजिटल युद्ध से मुकाबले में भारत बहुत पीछे है। चीन का यह निगरानी तंत्र डिजिटल जासूसी का एक छोटा ट्रेलर है। इस मामले से सबक लेकर सरकार और संसद द्वारा समुचित कार्रवाई हुई तभी आगे चलकर ऐसे मामलों को रोकने में कामयाबी मिल सकेगी।
ब्रेक्सिट का जनमत संग्रह और 2016 के अमेरिकी चुनावों में सोशल मीडिया कंपनियों के माध्यम से रूस ने व्यापक हस्तक्षेप किया। भारत में अनेक पार्टियों की सोशल मीडिया कंपनियों के साथ सांठगांठ के सबूत उजागर हो रहे हैं। इस मामले के खुलासे के बाद बिहार और बंगाल के चुनावों में विदेशी ताकतों के हस्तक्षेप की आशंका बढ़ गई है।
वोटर लिस्ट को सोशल मीडिया के अनेक प्लेटफॉर्म्स और लोकेशन के साथ कनेक्ट कर दिया जाए तो मतदाताओं के रुझान को बदला जा सकता है। चीन और अमेरिकी सरकारों द्वारा समर्थित विदेशी डिजिटल कंपनियों के माध्यम से नेताओं ने वोटरों को कब्जाने का मंत्र हासिल कर लिया तो फिर आने वाले समय में लोकतांत्रिक व्यवस्था बेमानी हो जाएगी। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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